पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत(piaget’s cognitive development theory in hindi): पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत मनोविज्ञान केे विभिन्न प्रकार के सिद्धांतों में से एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं। इस लेख में हम पियाजे और इसके संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत पर विस्तृत चर्चा करेंगे।
जीन पियाजे जीवन परिचय

जीन पियाजे एक जंतु मनोवैज्ञानिक थे। इनका जन्म 1886 ईसवी को स्विजरलैंड में हुआ था। यह जानना चाहते थे की बालकों में वृद्धि और विकास किस तरह से होता है इसके लिए इन्होंने अपने ही बच्चे को खोज का विषय बनाया और बारीकी से अध्ययन किया। परिणामस्वरूप मानसिक या संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत दिया। इनके सिद्धांत ने ज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में एक क्रांति ला दी। आज तक ज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में जो भी शोध एवं अध्ययन किए गए।उनमे सबसे विस्तृत और वैज्ञानिक रूप से आदान जीन पियाजे ने किया है।
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत
पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार
“वह प्रक्रिया जिसके द्वारा संज्ञानात्मक संरचना को संशोधित किया जाता है समावेशन कहलाती है।”
पियाजे ने अपने इस सिद्धांत में यह बात सामने रखी कि बच्चों में बुद्धि का विकास उनके जन्म से जुड़ा हुआ है। प्रत्येक बालक अपने जन्म के समय कुछ जन्मजात प्रवृत्तियां एवं सहज क्रियाओं को करने सम्बन्धी योग्यताओं जैसे- चूसना, देखना, वस्तुओं को पकड़ना आदि को लेकर पैदा होता है। जन्म के समय बालक के पास बौद्धिक संरचना के रूप में इसी प्रकार की क्रिया करने की क्षमता होती है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है, वैसे-वैसे उसकी भौतिक क्रियाओं का दायरा भी बढ़ जाता है।
पियाजे के संज्ञानात्मक/मानसिक विकास की अवस्थाएं
पियाजे ने संज्ञानात्मक/मानसिक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है। जो निम्नलिखित है
- इंद्रियजनित गामक अवस्था (Sensory motor stage)
- पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational stage)
- मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational stage)
- मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Firmal operational stage)
इंद्रियजनित गामक अवस्था | जन्म से लेकर 2 वर्ष |
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था | 2 से 7 वर्ष |
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था | 7 से 11 वर्ष |
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था | 11 से उपर |
इंद्रियजनित गामक अवस्था
इन्द्रियजनित गामक अवस्था या संवेदी प्रेरक अवस्था (Sensory motor stage): मानसिक विकास का यह चरण जन्म से लेकर 2 वर्ष की अवधि तक पूरा होता है। इस अवस्था में बालक की मानसिक क्रियाएं उसकी इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में सम्पन्न होती है। उन्हें भूख लगी है वे इस बात को रो कर बताते हैं। किसी भी वस्तु को जो उन्हें चाहिए उसे दिखा कर अपनी बातें प्रकट करते हैं। इस प्रकार से इस अवस्था के बालक भाषा के अभाव में अपने चारों ओर के वातावरण को अपनी इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं और अनुभव के माध्यम से ही जानते हैं। उन्हें विचारों के रूप में जो कुछ कहना और समझना होता है, उनकी गामक क्रियाओं के रूप में ही अभिव्यक्ति होती है। कोई वस्तु। बच्चे के सामने तभी तक होती है जब तक वह वस्तु उसकी आंखों के सामने रहे। आंखों से ओझल होते ही वस्तु उसके लिए समाप्त हो जाती है।
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational stage): बच्चों में यह अवस्था 2 से 7 वर्ष के अन्दर होती है। इसके दौरान बालकों में भाषा का विकास ठीक प्रकार से आरम्भ हो जाता है। अभिव्यक्ति का माध्यम अब भाषा बनने लग जाती है, गामक क्रियाएं नहीं। वस्तुओं के बारे में सोचने तथा विचारने के लिए अब भाषा तथा चित्रों का प्रयोग प्रारंभ हो जाता है। बालक अपने परिवेश की वस्तु को पहचान और उनमें भेद करना प्रारम्भ कर देते हैं। वे वस्तुओं को समूह में विभाजित कर उन्हें नाम देना शुरू क देते हैं। परन्तु शुरू के वर्षों में उनका सम्प्रत्य कार्य अधूरा एवं दोषपूर्ण ही होता है।
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational stage): यह अवस्था 7 से 11 वर्ष के बालक के अन्दर होती है। बच्चों में वस्तुओं को पहचानने, विभेदीकरण करने, वर्गीकरण करने तथा उपयुक्त नाम से समझने की क्षमता विकसित हो जाती है। वे वस्तुओं के बीच समानता, सम्बन्ध, असमानता को समझने लगते हैं। शुरू में इस प्रकार के उनकी समझ मूर्त रूप तक ही सीमित होती है। उनका चिन्तन अब अधिक क्रमबद्ध एक तर्कसंगत होने लगता है। वे यथार्थ की दुनिया के समझना शुरू कर देते हैं।
अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Firmal operational stage): इसे अनौपचारिक संक्रियात्मक अवस्था भी कहते हैं। यह 11 वर्ष या इससे अधिक आयु के बालकों के अन्दर पाई जाती है। बालकों में इस अवस्था की मानसिक विकास संबंधी बातों को निम्न रूप से समझा जा सकता है
- सभी प्रकार के संप्रत्यों का समुचित विकास हो जाता है।
- भाषा संबंधी योग्यता तथा संप्रेषण शीलता का विकास अपनी ऊंचाई को छूने लगता है।
- विचारने , सोचने , तर्क करने , कल्पना, निरीक्षण, अवलोकन, प्रेक्षण, प्रयोग आदि के द्वारा उचित निष्कर्ष निकालने की पर्याप्त योग्यता विकसित होती है।
- स्मरणशक्ति रटने पर आधारित न होकर अब समझ पर आधारित होने लगती है।
- चिंतन अब मूर्त नहीं रहता अमूर्त बन जाता है।
- वस्तुओं के स्थूल रूप का अब चिंतन प्रक्रिया के लिए उपस्थित रहना अनिवार्य नहीं रहता।
- समस्या समाधान योग्यता का उचित विकास हो जाता है।
- बच्चों में संभावित समस्या का हल खोजने की क्षमता पैदा हो जाती है।
- संश्लेषण, विश्लेषण तथा सूक्ष्म सिद्धांतों की स्थापना संबंधी उच्च मानसिक क्षमताओं का समुचित विकास हो जाता है।
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास विस्तार से जानने के लिए
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पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत के महत्वपूर्ण संप्रत्यय/विशेषता
1. संगठन- पियाजे प्रथम मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने व्यक्ति को जन्म से क्रियाशील तथा सूचना-प्रक्रमाणित प्राणी स्वीकार किया है।
2. अनुकूलन– अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने पूर्णज्ञान एवं नवीन अनुभवों के मध्य संतुलन स्थापित करता है।
3. आत्मसातीकरण: आत्मसातीकरण से अभिप्राय है कि बालक अपनी समस्या का समाधान करने के लिए अथवा वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए पूर्व में सीखे गए क्रियाओं का सहारा लेता है।
4. समायोजन: समायोजन के अंतर्गत पूर्व में सीखी गई क्रियाएं काम में नहीं आती।बल्कि इसमें बालक अपनी योजना और व्यवहार में परिवर्तन लाकर वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करता है।
5. साम्यधारणा: ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति नई परिस्थिति के करण उत्पन्न संज्ञानात्मक असंतुलन को दूर कर संतुलन लाने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया में आत्मसातीकरण अथवा समाविष्टिकरण या दोनों की प्रक्रिया सम्मिलित होती है।
6. स्कीमा: व्यक्ति की ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसका सामान्यीकरण किया जा सकता है।
7. स्कीम्स: व्यवहारों का संगठित पैटर्न जिसे आसानी से दोहराया जा सकता है। जैसे- बालक द्वारा विद्यालय के लिए तैयार होने की नित्य क्रिया।
8. संरक्षण – संरक्षण से अभिप्राय वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता को पहचानने व समझने की क्षमता से है।किसी वस्तु के रूप रंग में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्व में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता से।
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पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धान्त के शैक्षिक उपयोग/ अनुप्रयोग
पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धान्त के शैक्षिक उपयोग/ अनुप्रयोग निम्न हैं।
- बालक अपने ज्ञान का निर्माण स्वयं कर सकते है। उनके सीखने समझने के निर्माण का अलग ढंग होता हैं। अतः उन्हें सुविधाएं देकर स्वयं सीखने का अवसर देना चाहिए।
- अध्यापक को यह चाहिए कि वो छात्र को स्वयं सीखने दे।उन्हें अपने अधिगम को स्वयं संचालित करना चाहिए।
- पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत में कहा गया है कि अध्यापक अपने आप को विद्यार्थी के स्थान पर रखे। और उनकी समस्याओं को विद्यार्थियों की दृष्टि से देखे।इसे साक्षत्कार , प्रश्नावली , निरीक्षण विधि द्वारा किया जा सकता हैं।
- छात्र को जितना अधिक करके सीखने का अवसर मिलेगा। उसका ज्ञान उतना ही अधिक स्थायी और स्पष्ठ होगा।
- बच्चों को गलती करने और उसमे स्वयं सुधारने का पर्याप्त अवसर देना चाहिए।
- तार्किक चिंतन के विकास में बाल्यावस्था महत्वपूर्ण कड़ी मानी जाती हैं।अतः शिक्षकों को बच्चों में तार्किक क्षमता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
- पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक या मानसिक विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।
- बालकों का मानसिक विकास धीरे-धीरे एक सोपान के तहत होता रहता है।अध्यापकों को पहले बालकों के मानसिक विकास की अवस्था का निर्धारण कर तब उसे शिक्षित करने हेतु योजना बनानी चाहिए।
- शिक्षकों को प्रयोगात्मक शिक्षा एवं व्यावहारिक शिक्षा पर बल देना चाहिए प्रयोगों के माध्यम से बालकों में नवीन विचार का संचार होता है।नवीन दृष्टिकोण मौलिक अन्वेषण के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होता है।
- वर्ग में सामान्य रूप के विद्यार्थियों को छोटे-छोटे समूहों में विभाजित कर उनमें विचार के माध्यम से तार्किक बुद्धि के विकास के अवसर देने चाहिए।
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